– डॉ. स्वर्णज्योति, बैंगलुरु
प्राचीन भारत में स्त्री को अत्यंत महत्व दिया जाता था। वह शक्ति का प्रतीक मानी जाती थी। वैदिक काल में स्त्री भोग-विलास की सामग्री नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की डोर संभालने वाली सहयोगिनी के रूप में प्रतिष्ठित थी। हमारे साहित्य में भी नारी का विशेष स्थान रहा है। साहित्यकारों ने नारी को केंद्र में रखकर उत्तम साहित्य की रचना की है। वेदों में भी कहा गया है कि— “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता।”
भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान
भारतीय संस्कृति में स्त्री और पुरुष को बराबर का दर्जा दिया गया है। मध्य काल में कन्याओं की शिक्षा की उपेक्षा की गई, बाल विवाह का प्रचलन हुआ और पर्दा प्रथा शुरू हुई। इससे नारी का स्थान निम्नतर हुआ, किंतु यह सामाजिक विकृति थी, मूल संस्कृति नहीं। समय के साथ नारी की व्याख्या में भी परिवर्तन आया। साहित्य में नारी को दयनीय दृष्टि से लिखा जाने लगा। मैथलीशरण गुप्त ने लिखा: “अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आँखों में है पानी।”
तवायफ का इतिहास और समाज में स्थान
तवायफ भारतीय उपमहाद्वीप में सदियों से मौजूद हैं। उनका सबसे पहला संदर्भ 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व के संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिक’ में वसंतसेना के पात्र से मिलता है। प्रारंभिक भारत में, गणिका का अर्थ था सार्वजनिक रूप से नृत्य करने वाली लड़की। धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर राजाओं और अन्य धनी संरक्षकों का मनोरंजन करने के लिए गणिकाओं को नृत्य और संगीत जैसी ललित कलाओं में प्रशिक्षित किया जाता था। तवायफों ने संगीत, नृत्य (मुजरा), रंगमंच और उर्दू साहित्यिक परंपरा में उत्कृष्टता हासिल की और योगदान दिया। उन्हें शिष्टाचार का विशेषज्ञ माना जाता था।
हीरामंडी सीरियल और तवायफों की कहानी
आजकल बहु चर्चित सीरियल “हीरामण्डी”, इन्हीं तवायफों की व्यथा-कथा कहती है। यह सीरियल मोईनबेग के उपन्यास पर आधारित है। हीरामण्डी देखने के पश्चात तवायफों पर पढ़ने की इच्छा बलवती हो उठी। तवायफों की दुनिया जो कि संघर्ष और निराशाओं से भरी है, किसी को दिखाई नहीं देती। इस संबंध में उनकी निंदा के अतिरिक्त कुछ भी लिखना आमतौर पर निंदा का विषय ही माना जाता रहा। मगर, एक ऐसा शख्स जिसने सत्य के करीब पहुंचकर इस धंधे को शब्दों के श्रृंगार से सहानुभूति में बदला, वे कलमकार अमृत लाल नागर थे।
भारतीय समाज में तवायफों की भूमिका
मुगल काल के दौरान, तवायफ एक गायिका, नृत्यांगना और शायरा के रूप में हमारे सामने आती थी। वे कुलीन वर्ग की सेवा किया करती थीं। लोककथाओं के इतिहास में यह माना जाता है कि उर्वशी ने धरती पर देवदासी के रूप में जन्म लिया था और मनुष्यों को नृत्य का दिव्य ज्ञान दिया था। तवायफों ने संगीत, नृत्य (मुजरा), रंगमंच और उर्दू साहित्यिक परंपरा में उत्कृष्टता हासिल की। वे अमीर और कुलीन परिवारों के बेटों के लिए शिक्षक भी बन गईं।
औपनिवेशिक काल और तवायफों की स्थिति
1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अवध पर कब्ज़ा करने के बाद इस मध्यकालीन संस्था के लिए पहली मौत की घंटी बजी। औपनिवेशिक सरकार ने जल्द ही इसे नापसंद किया और रोजगार के अवसरों की कमी के कारण तवायफों ने पर्दे के पीछे से ब्रिटिश विरोधी कार्रवाइयों में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनके भवन, जिन्हें “कोठा” के रूप में जाना जाता था, ब्रिटिश विरोधी तत्वों के लिए बैठक क्षेत्र और छिपने के स्थान बन गए। कुछ तवायफों को औपनिवेशिक अधिकारियों से प्रतिशोध का सामना करना पड़ा। उनके कोठे की तलाशी ली गई और उनका सामान जब्त कर लिया गया।
तवायफों की संघर्षशीलता और आज की नारी
हीरामंड़ी सीरियल में संवादों की अदायगी, कलात्मकता, खूबसूरती, वफादारी और बेवफाई, देश प्रेम, त्याग और मोहब्बत का वर्णन किया गया है। इस सीरियल की एक बात जो बहुत खास है वो है आजादी। शाही महल की सभी तवायफें एक जुट होकर आजादी के लिए क्रांति करती हैं। वे कहती हैं कि आजादी के मायने उनसे अधिक कौन समझ सकता है? सही है ना, आजादी का मतलब और कीमत तवायफों से अधिक और कौन जान और पहचान सकता है?
नारी सशक्तिकरण की दिशा में
आज शिक्षा के तीव्र प्रचार-प्रसार के चलते नारी ने स्वयं की शक्ति को पहचाना है। समय परिवर्तन के साथ-साथ आज स्त्री की भूमिका में भी परिवर्तन हो रहा है। आज की नारी धीरे-धीरे आत्मबोध से अनुप्रमाणित हो रही है। नारी आज अपनी शर्तों पर अपने ढंग से प्रतिस्थापित होने के लिए संघर्षशील है। आज वह सशक्त है, शक्ति का पुंज है।
निष्कर्ष
यह लेख नारी सशक्तिकरण के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है। तवायफों की कहानी, संघर्ष और उनकी भूमिका को समझने का प्रयास करता है। आज की नारी ने स्वयं की शक्ति को पहचाना है और वह सशक्तिकरण की दिशा में आगे बढ़ रही है। यह लेख भारतीय समाज में नारी के महत्व और उसकी सशक्तिकरण की दिशा में किए गए प्रयासों को दर्शाता है।
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