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सावन में शिव की आराधना का रहस्य

                  -कमलकिशोर राजपूत “कमल”

भगवान शिव हिंदू जनमानस में एक अहम दैवीय उपस्थिति हैं। शिव क्या हैं, कौन हैं उनकी महिमा क्या है? शिव तो स्वयं काल हैं, महाकाल हैं, जो समय और सीमाओं के परे हो वही तो शिव हैं, वही तो भोले हैं।

   

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सर्वप्रथम शिव का रूप-स्वरूप जितना रहस्यमयी और विचित्र है उतना ही आकर्षक भी। अगर इन्सान इन विषमताओं वाले देव को सिर्फ़ स्वीकार ले तो जीवन सुलभ और सरल हो सकता है। उनकी विषमता जीवन की तमाम विषमताओं से मेल खाती हैं। इन विषमताओं के बीच स्थापित जो विचार शक्ति है वही शिव है।

भगवान शिव की विचित्रता एक इशारा है, प्रतीकात्मकता संकेत है।|

     शिव संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, कल्याणकारी या शुभकारी। यजुर्वेद में शिव को शांतिदाता बताया गया है। शिव में शिका अर्थ है, पापों का नाश करने वाला, का अर्थ देने वाला यानी दाता।

    शिव को समझने के पूर्व वो जो धारण करते हैं उनके सभी प्रतीकों को समझना होगा, क्योंकि ये सारे प्रतीक ही जीवन के बहुमूल्य को दर्शाते हैं। ये सारे प्रतीकों के पीछे जीवन के सारे गूढ रहस्य छुपे हुए हैं। शिव-शक्ति और अर्धनारीश्वर परिकल्पना भी  सरलता में विचित्र है लेकिन गूढ रहस्य है मानव जीवन जीने का, इसे समझ जाये तो नर और नारी में भेदों का समीकरण ही लुप्त हो जायेगा।

  सनातन संस्कृति की ये विशेषताएं ही जीवन दर्शन को समझाने में समर्थ बनाती है। शिव की पराकाष्ठा ही जीवन शैली का निचोड है जो सिर्फ सनातन संस्कृति में ही पाया जाता है। शिव की विचित्रता में ही जीवन की सरलता छुपी हुई है इसीलिये शिव को देवों के देव कहा गया।

जटाएं : अंतरिक्ष का प्रतीक।

चंद्र : चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन चांद की तरह भोला, निर्मल, उज्ज्वल और जाग्रत है कलाओं वाला अमावस्य से पूर्णिमा तक विविध स्थितियां मन की।

त्रिनेत्र : शिव की तीन आंखें हैं। इन्हें त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव की ये आंखें सत्व, रज, तम; गुणों का, भूत, वर्तमान, भविष्य; कालों का, स्वर्ग, मृत्यु पाताल; लोकों का प्रतीक हैं। तीन भवबंधन माने जाते हैं – लोभ, मोह, अहंता इन तीनों को ही नष्ट करने वाले ऐसे अचूक अस्त्र को त्रिपुरारि शिव के सानिध्य में ही प्राप्त किया जा सकता है। तृतीय नेत्र उन्मीलन का तात्पर्य है – अपने आप को साधारण क्षमता से उठाकर विशिष्ट श्रेणी में पहुँचा देना।

सर्पहार : सर्प जैसा हिंसक जीव शिव के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक जीव है, जिसे शिव ने अपने वश में कर रखा है।

त्रिशूल : त्रिशूल भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है ये मारक शस्त्र उनके हाथ में है।

डमरू : एक हाथ में डमरू, जिसे वे तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्मा रूप है।

मुंडमाला : गले में मुंडमाला, जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में किया हुआ है।

छाल : उनके शरीर पर व्याघ्र चर्म यानी बाघ की खाल पहनी हुई है। व्याघ्र हिंसा और अहंकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा और अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।

भस्म : शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से किया जाता है। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है।

वृषभ : उनका वाहन वृषभ यानी बैल है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ धर्म का प्रतीक है। महादेव इस चार पैर वाले जानवर की सवारी करते हैं, जो बताता है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनकी कृपा से ही मिलते हैं।

इस तरह शिव-स्वरूप उनके इन प्रतीकों से उन्हें पूरी तरह विचित्र दर्शाता है लेकिन विचित्र होकर भी उनका रूप विराट और अनंत है, महिमा अपरंपार है, उनमें ही सारी सृष्टि समाई हुई है।

सावन महिमा:

     मनोकामना पूर्ति का मास है सावन, इस काल में शिव आराधना का होता है विशेष महत्व सावन हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र से आरंभ होने वाले वर्ष में पांचवे क्रम में आता है जिसे श्रावण माह कहते हैं।

  शिवपुराण में सावन मास के महत्व को लेकर उल्लेख है। सावन मास भगवान शंकर का मास है। श्रावण मास की पूर्णमासी श्रवण नक्षत्र से युक्त होती है। इस माह का मुख्य नक्षत्र श्रवण है जिसके कारण भी इसे श्रावण कहा जाता है।

    एक मान्यता यह भी है कि श्रुति का अर्थ वेद होता है। प्राचीन काल में वेद नित्य श्रवण किए जाते थे लेकिन शनै:-शनै: उनका सुनना कम हो गया तब यह निर्णय लिया गया कि इन्हें केवल वर्षाकाल में सुना जाए इसलिए इस काल में पड़ने वाले मास का नाम श्रावण हुआ।

  इस मास को नभस के नाम से भी संबोधित किया जाता है जो बादल का पर्याय है। इसीलिए वर्षा ऋतु श्रावण की ऋतु मानी जाती है। कहा जाता है कि इसके माहात्म्य के श्रवण मात्र से सिद्धि प्राप्त होती है इसलिए भी यह श्रावण कहलाता है।

 श्रावण का एक अर्थ प्रसन्न करना भी होता है। सावन एक प्रकार का गीत भी होता है तथा पहाड़ों में पाए जाने वाले एक पेड़ को भी सावन कहते हैं।

   यह मास भोले को ही समर्पित है। इसलिए इसे शिवमास भी कहा जाता है। सावन मास की शिवरात्रि पर शिव का जलाभिषेक करना अत्यंत पुण्यदायी एवं मनोकामनाओं पूर्ति करने वाला माह माना जाता है। शिव पुराण के अनुसार शिव स्वयं ही जल भी हैं।

  सावन मास ही वह मास है जब पार्वती की तपस्या फलीभूत हुई थी। सावन मास व्रतों और उत्सवों का पर्व है। एक अन्य पौराणिक संदर्भ के अनुसार मार्कंडेय ऋषि ने सावन माह में घोर तप किया जिसके परिणामस्वरूप शिव की कृपा उन्हें लंबी आयु के लिए प्राप्त हुई। उन्हें इतनी प्रबल मंत्रशक्ति मिली कि यमराज भी नतमस्तक हो गए।

 श्रावण माह की सबसे महत्वपूर्ण घटना समुद्र मंथन की मानी जाती है। इसी माह में सावन में समुद्र मंथन में हलाहल निकला था जिसे भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया और वे नीलकंठेश्वर कहलाये। उन पर विष का प्रभाव कम हो इसीलिए सावन या श्रावण मास में उन्हें जल चढ़ाया जाता है। पूरे देश में कांवड़ यात्राएं होती हैं वे भोले पर हुए विष प्रभाव को कम करने  के लिए पवित्र जल को आदरपूर्ण लाते हैं और चढ़ाते हैं ताकि लोक विषमुक्त हो।

  शिव इस माह में सृष्टि के कर्ता भी हैं क्योंकि सावन में भगवान विष्णु चार माह के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं और सृष्टि के संचालन का भार शिव को सौंप देते हैं। इसलिए चौमासे में शिव ही सर्वेसर्वा देवता हैं। वे सावन माह के प्रधान देवता हैं। इस अवधि में शिव के शिवत्व की आराधना, अर्चना का आशय लोक की आराधना का है इसलिए कि अपने लोक के संरक्षक शिव अपने आप में लोक ही हैं। मान्यता है कि शिव सावन में ससुराल जाते हैं और यही समय होता है जब उनकी कृपा भूलोकवासी पा सकते हैं।

 श्रावण मास कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि से आरंभ होता है। श्रावण मास में हर सोमवार को व्रत रखे जाते हैं। वैसे सोमवार का बहुत महत्व है। सावन माह में पड़ने वाले चारों सोमवारों पर उपवास किए जाते हैं तथा इसे शिव की आराधना माना जाता है। सावन की शिवरात्रि का भी अत्यधिक महत्व है। इस शिवरात्रि पर जो सावन मास की त्रयोदशी तिथि पड़ती है उस पर माता पार्वती और शिव दोनों की पूजा व आराधना की जाती है। कांवड़ यात्री इसी दिन बोल बम का उद्‌घोष कर मंदिरों में जलाभिषेक करते हैं।

  इसी मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया पर हरित तालिका तीजोत्सव मनाया जाता है जिसे हरियाली तीज कहते हैं। यह उत्सव सावन का प्राण पर्व है। इस पर्व पर धरती के तन और किशोरियों के मन पर हरियाली छाई रहती है। इस दिन माता पार्वती की पूजा होती है तथा क्वांरी कन्याएं और सुहागिनें शृंगार कर झूला झूलती हैं। अनेक स्थानों पर मेले सजते हैं।

सावन में ही शक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी मनाकर नाग देवता की पूजा की जाती है। इसी माह में पुत्रदा एकादशी के दिन विष्णु पूजा कर संतान की लंबी आयु की प्रार्थना की जाती है। सावन में ही ओणम पर्व मनाया जाता है तथा मान्यता है कि इस दिन पाताल लोक से राजा अपनी प्रजा से मिलने धरती पर आते हैं तथा सावन मास की पूर्णिमा पर भाई-बहनों का अप्रतिम पर्व रक्षा बंधन मनाया जाता है। 

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