आप सभी डॉ. स्वर्ण ज्योति जी के नाम से परिचित हैं। चुभन पॉडकास्ट पर मेरे साथ हुए उनके कई संवाद आप सुन चुके हैं। विश्व के एकमात्र अंक काव्य ‘सिरी भूवलय’ का स्वर्ण ज्योति जी ने अनुवाद किया, जो कि बहुत ही कठिन कार्य था। उनके जैसी साहित्य साधिका ही इतना बड़ा कार्य कर सकती हैं। स्वर्ण ज्योति जी के साथ सिरी भूवलय पर हुए मेरे संवाद को आप सुन चुके हैं।
भाषा ज्ञान और साहित्यिक योगदान
स्वर्ण ज्योति जी आठ भाषाओं का ज्ञान रखती हैं और चार भाषाओं में उत्तम लेखन किया है। उन्होंने अनुवाद का कार्य भी किया और दक्षिण भारत की विभिन्न भाषा और साहित्य से हमें परिचित करवाया। कन्नड़, तेलुगु आदि भाषा और साहित्य पर उन्होंने चुभन पॉडकास्ट से कई कार्यक्रम प्रस्तुत किए।
धर्म और वर्तमान संदर्भ
आज के समय में धर्म को लेकर लोग इतनी तरह की बातें करते हैं कि समझ ही नहीं आता कि धर्म का वास्तविक रूप क्या हो गया है? आजकल स्वर्ण ज्योति जी ऑस्ट्रेलिया प्रवास पर हैं। उनसे बातचीत के दौरान धर्म को लेकर उन्होंने कुछ इतनी अच्छी बातें कीं जिन्हें आपके साथ साझा करना चाहूंगी।
धर्म का अर्थ और महत्व
धर्म का अर्थ धारण करना है। इसी कड़ी में कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि डी. वी. जी. की चार पंक्तियाँ कहना चाहूँगी। उनका मानना है कि धारण करने के कई गुण होते हैं जिन्हें हम क्रमशः सीखते और अपनाते जाते हैं परंतु एक सहज गुण धर्म होता है:
“नगुवु सहज धर्म, नगुसुवुदु परम धर्म नगुवुदु नोडुता बाळुवुदु अतिशयद धर्म।”
अर्थात, हंसना एक सहज धर्म और हंसाना परम धर्म है परंतु हंसते हुए को देखकर जीना धर्म की पराकाष्ठा है। वास्तव में, हम दूसरे की खुशी को देखकर खुश नहीं होते और अपने सहज धर्म से भटक जाते हैं।
संत तिरुवल्लुवर के विचार
तमिल के संत तिरुवल्लुवर जी कहते हैं: “धर्म से बड़ा भाग्य और कुछ नहीं है और धर्म को भूल जाने से बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं है।” हम यही भूल गए हैं कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई को ही धर्म मान बैठे हैं जबकि ये धर्म नहीं संप्रदाय हैं। स्पष्ट है कि धर्म और संप्रदाय दोनों अलग-अलग हैं। संप्रदाय एक परंपरा या एक मत को मानने वालों का समूह है। अतएव इन्हें धर्म कहना सर्वथा असत्य होगा।
धर्म से भटकाव
“मैं” का प्रभाव
धर्म से भटकाव तब होता है जब व्यक्ति पर “मैं” हावी हो जाता है। संत कवि कबीरदास जी ने भी कहा है:
“जब मैं था तब हरि नहि अब हरि है मैं नाही……”
इसी प्रकार, कुरुक्षेत्र की भूमि पर अर्जुन घुटनों के बल बैठ कर कृष्ण की बात को तब तक नहीं समझ पाते जब तक उन पर “मैं” और “मेरा” हावी रहता है।
वेदों में धर्म का वर्णन
वेदों में दो प्रकार के धर्मों का वर्णन है: शरीर के लिए और आत्मा के लिए। शरीर और आत्मा दोनों का धर्म अलग होता है। आत्मा को कर्म करने के लिए शरीर चाहिए और मन सभी राग द्वेष को धारण करता है। मन ही सभी बंधन और मोक्ष का कारण होता है। शरीर परिवर्तनशील है तो धर्म भी परिवर्तनशील (धारण करने योग्य सभी गुण) हैं।
आत्मा अपरिवर्तनशील है। आत्मा का धर्म केवल परमात्मा को धारण करना है। श्री सूतजी ने कहा “अहैतुक्यप्रतिहता” यानी किसी प्रकार की कामना न हो और नित्य निरंतर हो। भगवान को धारण करना ये आत्मा का धर्म है।
डी. वी. जी. कहते हैं कि धर्म निर्णय जन्मजन्मांतर के कर्म संदर्भ से प्राप्त होता है। इसे समझ कर धर्म निर्णय का पालन करें तो ब्रह्म का सामीप्य प्राप्त होगा।
आत्मा और शरीर का धर्म
हम आत्मा हैं, शरीर नहीं हैं इसलिए हमारा मुख्य धर्म तो आत्मा का ही धर्म है अर्थात भक्ति, उपासना करना। परंतु भक्ति उपासना करने के लिए एक स्वस्थ शरीर और अनुकूल समाज चाहिए इसलिए आवश्यक है कि शरीर के धर्म का भी ठीक-ठीक पालन हो तभी एक अच्छा समाज बन पाएगा जिसमें सभी जीवन को सफल बना पाएंगे।