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भारतीय परंपरा में शिव-तत्व : पूर्व भूमिका

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अति शीघ्र हम, “भारतीय परंपरा में शिव-तत्व” इस विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन करने जा रहे हैं।

‘शिवतत्त्व’ का तात्पर्य है – शिव का सिद्धान्त। शिवतत्त्व को समझे बिना मानव-जीवन का जगत् के अन्य पक्षों से सम्बन्ध समझा ही नहीं जा सकता।भगवान् शिव अनेक नामों और रूपों का सुन्दर समन्वय हैं – जैसे शंकर, शम्भू, महेश। शिवतत्त्व हमें अत्यन्त सुन्दर माध्यम से भगवान् शिव के विरोधाभासी गुणों को स्पष्ट और उजागर करता है। शिव संहारक भी हैं और उत्पन्नकर्ता भी। वे एक ही समय अज्ञानी भी हैं और ज्ञान के भण्डार भी। वे चतुर भी हैं और दानी भी। उनके संगी-साथी भूत, प्रेत, सांप इत्यादि हैं लेकिन वे ऋषियों, सन्तों तथा देवताओं के भी आराध्य पुरुष हैं।
शिवतत्त्व कल्याण का दर्शन है। इसी तत्त्व के मर्म को समझकर हम समाज में साहचर्य, एकात्मकता और सद्गुणों का प्रचार कर सकते हैं। शिव वही तत्त्व है जो समस्त प्राणियों का विश्राम-स्थल है। ऋषियों, मुनियों ने अनेक चमत्कारिक अन्वेषण किए हैं पर शिवतत्त्व की खोज अद्भुत थी जो ब्रह्माण्ड के समस्त रहस्य खोलते हुए जीवन-मरण के चक्र से मुक्त करती थी।
‘तत्त्व’ क्या है? पूरा ब्रह्माण्ड तत्त्वों से ही बना है, और जो भी ब्रह्माण्ड में है वह शरीर में भी है। इस बात को श्रीकृष्ण, अष्टावक्र, शंकराचार्य तथा अनेक ऋषियों ने समझाने का प्रयास किया है। तत्त्व जागृत किए बिना ईश्वर के दर्शन सम्भव ही नहीं। शिवतत्त्व जागृत होगा तो शिव सामने आयेंगे। शक्तितत्त्व जागृत होगा तो महाकाली के दर्शन सम्भव होंगे।

शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है, वह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है- ‘जिसे सब चाहते हैं’। सब चाहते हैं अखण्ड आनन्द को। शिव का अर्थ है-आनन्द। शिव का अर्थ है- परम मंगल-परम कल्याण।
शिवतत्त्व से तात्पर्य विध्वंस या क्रोध से भी है। दुर्गासप्तशती के पाठ से पहले पढ़े जाने वाले मन्त्रों में एक मन्त्र है –
ऊँ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामी नमः स्वाहा।
दुर्गासप्तशती में आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व के साथ-साथ, शिवतत्त्व का शोधन परम आवश्यक माना गया है। इसके बिना ज्ञान-प्राप्ति असम्भव है।
शिवतत्त्व विध्वंस का भी प्रतीक है- सृजन और विध्वंस अनन्त श्रृंखला की कड़ियां है जो बारी-बारी से घटित होती हैं। ज्ञान, विज्ञान, आध्यात्मिक, भौतिक जीवन के किसी भी क्षेत्र में यह सत्य है। ब्रह्माण्ड की ‘बिग बैंग थ्योरी’ इसी बात को प्रमाणित करती है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक महाविस्फोट के बाद हुई। विस्फोट से सृजन हुआ न कि विनाश।
जब सृष्टिकाल के उपद्रवों से जीव व्याकुल हो जाता है, तब उसको दीर्घ सुषुप्ति में विश्राम के लिए भगवान् शिव सर्वसंहार करके प्रलयावस्था व्यक्त करते हैं।

‘शिवतत्त्व’ एक ही है, उसी के ब्रह्मा, विष्णु, गणपति, दुर्गा, सूर्य आदि भिन्न-भिन्न नाम और रूप हैं। वेद के अनुसार सत्- असत् जो कुछ भी है, सब ईश्वर है। ईश्वर के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं है।
इस प्रकार वेद ने मानव-मात्र के लिए बहुत ही सुगम साधन प्रस्तुत कर दिया है। जब हम समस्त जड़-चेतन को भगवन्मय देखते हैं, तब सबका सम्मान करना हमारे लिए आवश्यक हो जाता है। अपमान करने वाले का भी हमको सम्मान ही करना होगा, क्योंकि वह भी शिव-तत्त्व से भिन्न नहीं है।
इस प्रकार यदि वर्तमान समय में जबकि विश्व में प्रेम, सद्भाव एवं शान्ति का अभाव सा होता दिख रहा है तथा मनुष्य में मनुष्यत्व समाप्त होता जा रहा है, यदि हम ‘शिवतत्त्व’ के मर्म को समझ कर समाज में साहचर्य, एकात्मकता तथा सद्गुणों का प्रचार करें तो एक नवीन विश्व का निर्माण सम्भव है जहां सुख, शान्ति, आनन्द और सन्तोष होगा। मानव मात्र का कल्याण होगा।

इन्हीं सब बातों को सोचकर हमने भारतीय परंपरा में शिव-तत्व इस विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया है, जिसमें मुख्य वक्ता के तौर पर हमने जिन विदुषी विभूतियों को आमंत्रित किया है, उनके अतिरिक्त इस संवाद के लिए किसी और नाम को शायद हम सोच भी नही सकते थे। आप दोनों ने ही हमारे आग्रह को सहर्ष स्वीकार किया, इस बात के लिए हम उनके दिल से आभारी हैं।

विदेश मंत्री एस.जयशंकर जी के साथ मृदुल कीर्ति जी

आइए, इनसे आपका परिचय करवाती हूं।
मिलते हैं, आदरणीया मृदुल कीर्ति जी से जो हमारे आर्ष ग्रंथो को लोक-भाषा में लाने की अथक साधना में तल्लीन हैं।आर्ष वैदिक ऋषियों के प्रणीत ग्रंथो-सांख्ययोग दर्शन, पतंजलि योग दर्शन, सामवेद, ईशादि नौ उपनिषदों, श्रीमद्भगवद गीता, अष्टावक्र गीता,विवेक चूड़ामणि आदि ग्रंथों की क्लिष्टता, गूढ़ अर्थ गर्भिता, मर्म गर्भिता को काव्य की सरसता में विभिन्न छंदों के माधुर्य में काव्यानुवादित करने का साहसिक कार्य आपने किया है। आपने ‘पतंजलि योग-दर्शन’ का अनुवाद करके इतिहास रचा है, जो दुनिया में अब तक का पहला अनुवाद है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के साथ मृदुल कीर्ति जी।

गृहस्थ रहते हुए 18 महाग्रंथों के काव्य अनुवाद के बारे में कोई सहजता से शायद सोच भी न सके, परंतु आपने इस कठिन कार्य को इस तरह से किया कि हम सबको यही लगता है कि उन्होंने बहुत आसानी से कर लिया होगा, लेकिन नही…..उन्होंने मुझसे जो शब्द कहे उनसे आप भी समझ सकते हैं कि उन्होंने जो किया वह कितनी बड़ी उपलब्धि है। उनका कहना है कि ” यह न सोचना कि सब कुछ बहुत सरल था। उड़ान भरने का अर्थ है कि मेरे पंखों में पत्थर बंधे थे……..।”

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के साथ।

कितने कम शब्दों में आपने अपने इतने लंबे और कठिन सफर को बयां कर दिया है। मैंने आज तक मृदुल कीर्ति जी को किसी भी मंच से अपने बारे में, अपने कठिन सफर के बारे में कभी भी कुछ भी कहते हुए नही सुना। इसका कारण पूछने पर उन्होंने जो कुछ मुझसे कहा, उसे सुनकर मैं भाव-विभोर हो गयी और उनके बारे में मेरे मन मे और भी अधिक आदर भाव बढ़ गया। उन्होंने कहा, “कि मेरा लक्ष्य एकांतिक नहीं आत्यंतिक है। मैं एकांतिक दुख और पीर की बात नहीं करती, मैं अपनी बात नहीं करती। मैं वह बात करती हूं जो त्रिकाल में तुम्हारी पीड़ा को हरे…….” और सच में उन्होंने जो साहित्य-सृजन किया है, उसे पढ़कर परमानंद की प्राप्ति होती है, इसीलिए वे सिर्फ और सिर्फ अपने लेखन कार्य मे तल्लीन रहती हैं।

प्रधानमंत्री मोदी जी के साथ मृदुल कीर्ति जी।

मृदुल कीर्ति जी उपनिषद, श्रीमद्भगवद गीता आदि ग्रंथों के उदाहरण देते हुए कहती हैं कि हमारी सारी ज्ञान-परंपरा में चिंतन की एक निरंतरता है। जहां उपनिषद हमें त्याग करते हुए भोग की प्रवृत्ति में लिप्त होने का संदेश देते हैं, वहीं संदेश श्रीमद्भगवद गीता में पहुंचते पहुंचते निष्काम काम यानि कर्मयोग में बदल जाता है। इन आर्ष ग्रंथों, जिनका आपने काव्यानुवाद किया, वह कार्य बहुत कठिन था, बहुत क्लिष्ट विधा होती है यह। मृदुल कीर्ति जी का कहना है कि इसमें आपका अपना कुछ नहीं रहता। इसके लिए ऋषियों के वैचारिक शरीर मे प्रवेश करना पड़ता है। उनके कहे, उनके लिखे हुए को आत्मसात करना, फिर संस्कृत भाषा के छंदों का मंथन और उसे हिंदी भाषा के सीमित मीटर में लाना, यह सब बहुत कठिन है। उन्होंने इस बात को कितने सुंदर शब्दों में व्यक्त किया है –

“कौन देता लेखनी कर में थमा?
कौन फिर जाता हृदय तल में समा ?
कौन कर देता है उन्मन चित्त को संसार से ?
कौन तज निःसारता, मुझको मिलाता सार से ?
कौन भूमा तक मेरे मन मूल को है ले चला ?
कौन गहकर बांह जंग से तोड़ता है श्रृंखला ?

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी के साथ मृदुल कीर्ति जी।

मृदुल कीर्ति जी का कहना है कि जगत से जब श्रृंखला टूटती है, तब ऐसे काव्य की रचना होती है।
आपने अपने साहित्य-सृजन में ऐसा बहुत कुछ कर दिया है, जो देखने पर असंभव ही लगता है और ऐसा प्रतीत होता है कि कोई दिव्य-चेतना प्रवाहित होती गयी और आप यह कार्य करती चली गईं। ऐसा ही कुछ मुझे तब लगा जब मैंने यह जाना कि आपने बृज भाषा में गीता लिखी। इस भाषा मे कोई भी औपचारिक शिक्षा लिए बिना आपने यह काम कैसे किया ? इसके जवाब में आपका कहना है कि ” यह सच है कि मैं कभी ब्रज के आसपास भी नही गयी। मुझे और कुछ नही रुचता, बस कर्तव्य, कर्म और ग्रंथों में डूबे रहना, यही मेरा संसार है। जब तक आप मन, वचन और कर्म से शुध्द नहीं होते, तब तक वासुदेव आपके हृदय में रुकेंगे ही नहीं। फिर आप ग्रंथों का अनुवाद कैसे कर सकते हैं ? अंतर्मन की शुद्धता और अंतर्बोध का दिव्यता से जुड़ाव आवश्यक है।पतंजलि योग में भी चित्त वृत्ति निरोध की बात है।इसके बिना ज्ञान बाहर नही आता है।”

ऐसी विदुषी साहित्य-साधिका……जी हां, ऐसे व्यक्तित्व साधना ही करते हैं और हमारे लिए प्रेरणास्रोत होते हैं, उनके सान्निध्य में कुछ देर रहकर ही हम कितना कुछ प्राप्त कर सकते हैं।

इन ग्रंथों के परिप्रेक्ष्य में ही मृदुल कीर्ति जी से शिव-तत्व के विषय में हम जानेंगे।

आइए दोस्तों, अब आपको मिलवाती हूं, भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित बहुचर्चित व लोकप्रिय उपन्यास ‘दर्दपुर’ की लेखिका, सुविख्यात साहित्यकार डॉ. क्षमा कौल जी से। जहां तक मैंने उनके साहित्य को पढ़ा है और उनकी कृतियों पर विद्वान वक्ताओं के वक्तव्यों को सुना है, निसंकोच यह कह सकती हूं कि कश्मीरी विस्थापितों पर लिखे गए अभी तक के सबसे प्रामाणिक दस्तावेज़ आपकी रचनाओं में पढ़ने को मिलते हैं।

तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जी के हाथों सम्मानित होते हुए।

डॉ. क्षमा कौल जी कश्मीर शैव-दर्शन की गहन अध्येता हैं। आप आचार्य अभिनवगुप्त के ‘तंत्रालोक’ के आठों खंडों की अधिकारी विद्वान हैं। आप शीर्ष कवयित्री भी हैं, आपका कविता-संग्रह ‘बादलों में आग’ निर्वासन साहित्य पर लिखा गया एक ऐसा संग्रह है, जिसे हम कश्मीरी पंडितों के शोषण और उत्पीड़न की एक खुली किताब कह सकते हैं। उनके साहित्य को जब आप पढ़ते हैं तो एक अलग ही भाव मन में उत्पन्न होता है क्योंकि वे एक साहित्यकार से अधिक संवेदनशील एवं भावुक इंसान लगती हैं। वे दर्द पर ऐसे बात करती हैं कि वह दर्द सभी को अपना प्रतीत होने लगता है। वे स्वयं इस दर्द में मानो डूब जाती हैं। उनका ख़ुद का भोगा हुआ दर्द घनीभूत पीड़ा से ओतप्रोत होकर उनके साहित्य में छलक उठा है।
उनका एक और कविता संग्रह ‘उदास लोग’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है।

आपका एक वक्तव्य, आपके हृदय की सच्चाई, आपके अच्छे संकल्पों को उद्घाटित करता है। आपका कहना है कि ” मैंने अश्रुधारा से लिखा है, कश्मीरी पंडितों का सच, स्याही से नही…..”
उनके एक एक शब्द का भाव उनके हृदय से निकला प्रतीत होता है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि शिव-तत्व कल्याण का दर्शन है और शिव-तत्व भगवान शिव के विरोधाभासी गुणों को स्पष्ट और उजागर भी करता है, जैसे भगवान शिव संहारक भी हैं और उत्पन्नकर्ता भी…….उसी प्रकार क्षमा कौल जी के लेखन में हमें विरोधाभासी गुण देखने को मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे आपने शिव-तत्व के मर्म को समझकर ही अपना लेखन आरंभ किया जो आज तक अनवरत जारी है।हम ऐसा सोच सकते हैं कि शिव का अर्थ तो है-आनंद, परम मंगल, परम कल्याण…… तो क्षमा जी का साहित्य इस परिभाषा को कहां पूरा करता है? पर जब हम गहनता से आपके साहित्य का अध्ययन अनुशीलन करते हैं तो हमें यह एहसास होता है कि उनका साहित्य पूरी तरह से इस बात को साबित करता है क्योंकि उसमें सच्चाई है, हृदय की गहराई से लिखा गया एक एक शब्द है।डॉ. क्षमा कौल जी ने इस बात को बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है, जिससे उनके लेखन का प्रयोजन स्पष्ट हो जाता है-
” लोगों को मेरा रूप उग्र लगता है पर वह उग्र नहीं है, सच है और सच प्रकाशमयी होता है।सत्य अपने आप मे ज्वाला लिए होता है। जो उस ज्वाला को बुझाने के लिए बैठे हैं, वहीं उसे उग्र कहते हैं। सच चमकदार होता है, जिसमें उसे सहने की ताब नहीं है तो उसे वह उग्र लगता है। मैं सिर्फ अपना सच बोलती हूं, जो मैंने अपने मन पर झेला है। मैं वही लिखती हूं, वही बोलती हूं…… सच की ऊष्मा से ही तो आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।”

देखा आपने, शायद अब मुझे कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि सच जब सामने आता है तो उसका कोई भी रूप हो, वह पवित्र ही होता है और बिल्कुल सच कहा क्षमा जी आपने, हमारा यह प्रयास होगा कि इस सच को सहने की ताब लाएं हम अपने अंदर और आगे बढ़ने का प्रयास करें। बीते दशकों या शताब्दियों में जो भी हुआ, उसे अब न दोहराया जाए और क्षमा जी जैसे साहित्यकारों से प्रेरणा लेते हुए हम यह शिव संकल्प करें कि कश्मीर, जो कि हम सबका है,वहां के सभी लोग हमारे अपने हैं, उन्हें हम अपने साथ लेते हुए चलें तभी यह कार्यक्रम जो कि हम शिव-तत्व पर कर रहे हैं, उसकी सार्थकता होगी।

अंत में एक बात कहना चाहूंगी कि आचार्य मम्मट ने काव्य के 6 प्रयोजनों का उल्लेख किया है। जिसमें से चतुर्थ प्रयोजन है – ” शिवेतरक्षतये” जिसका अर्थ है कि काव्य-सृजन अथवा उसका पठन एवं श्रवण, अमंगलनाश में भी समर्थ हैं।…….हमारी आज की दोनों विदुषी साहित्यकार इस प्रयोजन को आधार मानकर ही मानो लेखन करती हैं, क्योंकि मृदुल कीर्ति जी के लिए जैसा मैंने शुरू में बोला कि उनका कहना है कि ” मेरा लक्ष्य एकांतिक नहीं आत्यंतिक है।” और उनका प्रयास यह होता है कि ऐसा साहित्य रचा जाए जो त्रिकाल में हर प्राणी की पीड़ा को हरे, सबका कल्याण करे।
इसीलिए आपको इन आर्ष ग्रंथो को पढ़ना, उनका चिंतन, मनन, करना पसंद है और गूढ़ संस्कृत निष्ठ भाषा मे होने के कारण वे आम जन के लिए सहज ग्राह्य नहीं हैं, तभी आपने इन ग्रंथों का अनुवाद करके इसे सर्वग्राह्य बना दिया। कितना बड़ा मंगल का, कल्याण का कार्य आपने किया और इसी प्रकार क्षमा कौल जी, जिनका सबसे प्रिय विषय ही है शैव-दर्शन, उन्होंने भी अपने साहित्य सृजन से मंगल की, कल्याण की ही बात इस तरह से कहनी चाही है और सच को स्पष्टता से उद्घाटित किया है, जिससे सबक लेकर हम आगे की पीढ़ियों के मंगल, उनके कल्याण का शिव-संकल्प लें। शैव-दर्शन की अध्येता क्षमा जी शिव से इतर अमंगल की बात तो कर ही नही सकती।
इन दोनों विदुषी साहित्यकारों के लिए हम सभी के दिल मे बहुत सम्मान है।आप जैसे व्यक्तित्व भारतीय संस्कृति का, हमारी सनातन परंपरा का सम्मान हैं। जब मैं यह सोचती हूं कि इन्हें कैसे सम्मानित करूं तो कुछ भी समझ नहीं आता। मैं तो बस चंद शब्दों से ही आपको सम्मानित करने का प्रयास भर कर सकती हूं –
” आप तो सम्मान के सम्मान हैं,
आपको सम्मानित करूं, संभव नहीं।”

इस पूरे संवाद को आप “चुभन पॉडकास्ट” और “चुभन यूट्यूब “चैनल पर अति शीघ्र सुनेंगे।

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